Wednesday, February 4, 2009

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

सांस लेना ही काफ़ी नहीं, ज़ीने के लिए

तेरा होना भी ज़रूरी है, मेरे लिए
सांस लेना ही काफ़ी नहीं, ज़ीने के लिए

कहने को तो ज़िन्दा हूँ, पर तू ही जान है
एक दुनिया में तू ही, मेरा अरमान है
बैठा हूँ राह में, एक नज़र के लिए
सांस लेना ही काफ़ी नहीं, ज़ीने के लिए

क्या करूँ दिल को, कुछ और भाता नहीं
तेरा चेहरा, निगाहों से दूर् जता नहीं
अब तो ज़ीता हूँ, मरनें की आरज़ू लिए
सांस लेना ही काफ़ी नहीं, ज़ीने के लिए

काश!!! ये होता की, हम कभी ना मिलते
ज़िनदगी के कारवां में, तनहा ही चलते
ज़िन्दगी मिलती नहीं, सब-कुछ पाने के लिए
सांस लेना ही काफ़ी नहीं, ज़ीने के लिए

तेरा होना भी ज़रूरी है, मेरे लिए...
तेरा होना भी ज़रूरी है, मेरे लिए...

-"भावेश चौहान"